प्रकृति के सिद्धांत और धर्म एवं परंपराएं (Principles of Nature and Religions and Traditions)
हरि अनंत हरि कथा अनंता..!
प्रकृति के बारे में जितनी भी चर्चा की जाए उतनी ही कम है। यह उसी तरीके से है कि “हरि अनंत हरि कथा अनंता..!!” फिर भी इस लेख के माध्यम से मैंने प्रकृति के सिद्धांत, मानव विकास और धर्म एवं परंपराओं (Principles of Nature, Human Development and Religion and Traditions) को जोड़कर लिखने की कोशिश की है।
आखिर क्या है प्रकृति के मूल-भूत सिद्धांत ? क्या है डार्विन के सिद्धांत? क्यों चर्च में जूते और मंदिर में लोग नंगे पैर जाते हैं ? क्यों हिंदू लोग दाह – संस्कार करते हैं और मुस्लिम लोग क्यों दफनाते है? यह सभी परंपराएं अर्थात ]संस्कृति कैसे विकसित हुई? क्या इनका सम्बन्ध सीधे तोर से हमारी प्रकृति से था?
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इन सबका सम्बन्ध गहन रूप से हमारी प्रकृति से है जिनका उत्तर इस लेख में देने की कोशिश की गयी है।
जिस शब्द में पूरा संसार है और जो (प्रकृति) सर्वव्यापी है पहले उसको थोड़ा सा और समझना उचित होगा।
प्रकृति दो शब्दों से मिलकर बनी है ‘प्र’ और ‘कृति’। ‘प्र’ का मतलब ‘पहले से ही’ और ‘कृति’ का मतलब ‘रचना’ से है। यानी कि इसका मतलब हुआ ‘स्वयंभू’। अगर स्वयं को समझने की कोशिश करें तो यह भी दो शब्दों में विभाजित किया जा सकता है – स्वयं+भू। ‘स्वयं’ का मतलब ‘खुद’ और ‘भू’ का मतलब ‘उत्पन्न’ होने से है।
अगर हम भारतीय दर्शनशास्त्र पर नजर डालें तो दर्शन शास्त्र के अनुसार प्रकृति की रचना की शक्तियों से उत्पन्न हुई है – ब्रह्मा, विष्णु और महेश। जिनके माता-पिता के बारे में लोग अज्ञात है।
प्रकृति में कुछ तथ्य थे और यह तत्व आपस में मिलकर के नए-नए तत्वों का निर्माण करते चले गए और आज की प्रकृति अस्तित्व में आ गई।
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प्रकृति की छोटी से छोटी चीजें (जिन्हें हम बेकार/फालतू मानते हैं) से लेकर महंगी से महंगी की चीज, जो हमें उपयुक्त मालूम पड़ती है, वह तक एक दूसरे से जुड़ी होती है। यह बात अलग है कि हम उस कड़ी को ढूंढ पाते हैं या नहीं।
जब प्रकृति की बात हो और ‘डार्विंग’ की बात ना हो तो बात कुछ अधूरी अर्थात वैज्ञानिक नहीं हो पाती। ‘डार्विन’ जिन्होंने प्रकृति के निर्माण की प्रक्रिया को सिद्धांतिक तरीके से व्यक्त किया।
‘डार्विन’ इंग्लैंड के महान वैज्ञानिक थे – आज जो हम अपने आसपास सजीव चीजें (Live things) देखते हैं, उनकी उत्पत्ति तथा विविधता को समझने के लिए उनका विकास का सिद्धांत (The Theory of Evolution) सर्वश्रेष्ठ माध्यम बन चुका है।
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डार्विन के सिद्धांत (1858)
- अस्तित्व के लिए संघर्ष (Struggle for Survival):- “संघर्ष नहीं तो कुछ अस्तित्व नहीं।”
- प्रकृति के चयन का सिद्धांत (Theory of Selection of Nature)
- योग्यतम की उत्तरजीविता (Survival of the Fittest) :- “प्रकृति के साथ ताल-मेल।“
अब बात करते हैं प्रकृति के साथ-साथ कैसे-कैसे चीजें परंपराएं अथवा धर्म से जुड़ने लगी – इसमें मैं केवल आधुनिकता के परिदृश्य से व्यक्त करने की कोशिश करूंगा।
अंग्रेजो ने हमारे देश में लगभग 250 सालों तक राज किया उनका कहना था कि “भगवान ने गौरव के कंधों पर बोझ डाल दिया है।” (God has put burden on the shoulder of the white people) “काले लोगों को सभ्य करने का।”
अब गोरो को जो अपने आप को ‘सभ्य’ (Well civilized) और ‘सुशिक्षित’ (Well educated) बताते है, इतनी भी समझ नहीं कि यह प्रकृति (Geography) का सामान्य सिद्धांत है जिसका ‘रंग’ से कोई लेना-देना ही नहीं है। प्रकृति का सामान्य नियम है कि उष्णकटिबंधीय क्षेत्र (Tropical Region) की जलवायु गर्म होती है क्योंकि सूर्य का अधिकतम प्रभाव इसी क्षेत्र में होता है और समशीतोष्ण (Temperate Region) अथवा ध्रुवीय क्षेत्रों (Polar Regions) का तुलनात्मक, धूप का असर कम होता है।
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अगर हम पश्चिम सभ्यता (Western civilization) की बात करें तो ‘चर्च’ में जूते पहन कर जाते हैं अगर हम इसे अपनी दृष्टिकोण से देखते हैं तो यह गलत मालूम पड़ता है। लेकिन इसको प्रकृति के नजरिए से देखने की जरूरत है।
‘चर्च’ (Western civilization), जहां बहुत अधिक ठंड – जहां का तापमान शून्य से भी नीचे तक पहुंच जाता है वहां नंगे पैर जाना तो संभव ही नहीं है तो ‘चर्च’ में जूते पहनकर कर जाना उचित माना जाता है।
और बर्फ में ढूंढी नहीं होती। अगर भारतीय परिदृश्य के तरीके से देखें तो मंदिरों में जूते उतारकर ही जाते हैं क्योंकि यहां धूल हमारे जूतों में आसानी से आ जाती है। जिसका संबंध सीधे तौर पर प्रकृति (जलवायु) से है और और स्वच्छता से भी।
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हिंदुओं में ‘दाह – संस्कार’ और मुस्लिमों में ‘दफनाने’ की परंपरा भी प्रकृति की देन है।
प्राचीन वर्षों में भारत में जमीन पर वन और कृषि ही अधिक मात्रा में हुआ करती थी और जो कि कुछ हद तक अभी भी है। मतलब यहां लकड़िया प्रचुर मात्रा में पाई जाती थी और यदि हिंदू अगर शव को जलाने की बजाए दफनाते तो उन्हें कृषि के रूप में (जमीन का) आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता, तो दाह संस्कार के रूप में यह प्रथा का प्रचलन में आई।
यदि मुसलमानों के विस्तार की बात करें तो यह अरब देशों से हुई है जहां का क्षेत्र रेगिस्तानी है और जलवायु के हिसाब से वहां पेड़ – पौधे तुलनात्मक ना के बराबर थे। और रेगिस्तानी जमीन भी कोई काम की ना होने की वजह से ‘दफनाने’ की संस्कृति का विकास हुआ।
इन इलाकों में लोग (मुस्लिम) सफेद रंग के कपड़े पहनते हैं क्योंकि उसके (सफेद रंग के कपड़ों के) गर्म जलवायु में अलग ही लाभ होते हैं। चक्की जबकि धूल – धक्कड़ वाले इलाकों में लोग चमकीला रंग जैसे कपड़े पहनते हैं। यूरोप और अमेरिका वाले क्षेत्रों में लोग समुद्री किनारे कम कपड़े पहनते हैं, यह उनकी आवश्यकता है क्योंकि वहां की जलवायु / वातावरण ठंडा होता है जिससे चर्म रोगों का खतरा होता है और धूप से Vitamin – D भीं मिलती है, जिससे वह स्वस्थ रहते हैं।
हम प्रकृति के अनुरूप ही चलते हैं एवं इसी के अनुरूप ही हमारी (विश्व की) परंपराओं अथवा धर्मों का विकास हुआ है। ‘धर्म’ का मतलब है, धारण करने योग्य अर्थात जिसे धारण किया जा सके।
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निष्कर्ष (Conclusion) :-
प्रकृति ही सभी विषयों की मां समान होती है। और हम सब को (मनुष्य) इसके अनुसार चलना ही पड़ता है। और हम सभी प्रकृति के अनुरूप ही कार्य करते हैं। इसे प्रकृति का विज्ञान (Principle of Nature) कहते हैं। और प्रकृति का सिद्धांत हमारे धर्म एवं परंपराओं से गहन रूप से जुड़े है।
इसके बारे में जितनी भी बात की जाए उतनी ही कम है। यह उसी तरीके से है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता..!!
आपको इस लेख के माध्यम से आपको प्रकृति के सिद्धांत, मानव विकास और धर्म एवं परंपराओं का कुछ मिल जुला रुप दर्शाने कि कोशिश की गयी है।
दोस्तो उमीद है कि आपको हमारा लेख पसंद आया होगा। हमें आपके सवाल और सुझावों का हमेशा से इंतजार रहता है, अगर आपके कोई सवाल और सुझाव है, तो कृपया हमें सूचित करें।
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